संस्कृति और विरासत
छत्तीसगढ़ अपनी सांस्कृतिक विरासत में समृद्ध है। राज्य में एक बहुत ही अद्वितीय और जीवंत संस्कृति है। इस क्षेत्र में 35 से अधिक बड़ी और छोटी रंगो से भरपूर जनजातियां फैली हुई हैं। उनके लयबद्ध लोक संगीत, नृत्य और नाटक देखना एक आनंददायक अनुभव है जो राज्य की संस्कृति में अंतर्दृष्टि भी प्रदान करता हैं। राज्य का सबसे प्रसिद्ध नृत्य-नाटक पंडवानी है, जो हिंदू महाकाव्य महाभारत का संगीतमय वर्णन है। राउत नाचा (ग्वालों का लोक नृत्य), पंथी और सुआ इस क्षेत्र की कुछ अन्य प्रसिद्ध नृत्य शैली हैं।
पंडवानी
पंडवानी – छत्तीसगढ़ का वह एकल नाट्य है, जिसके बारे में दूसरे देश के लोग भी जानकारी रखते हैं। तीजन बाई ने पंडवानी को आज के संदर्भ में ख्याति दिलाई, न सिर्फ हमारे देश में, बल्कि विदेशों में।
पंडवानी का अर्थ है पांडववाणी – अर्थात पांडवकथा, महाभारत की कथा। पंडवानी छत्तीसगढ़ में मुख्य रूप से प्रदर्शन किया जाने वाला लोक गाथागीत है। यह महाकाव्य महाभारत के प्रमुख पात्र पांडवों की कहानी दर्शाता है। यह एक बहुत ही जीवंत रूप में वर्णित किया जाता है, जो दर्शकों के मन में दृश्यों का निर्माण करता है। परंपरागत रूप से यह पुरुष कलाकारों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है किंतु हाल के दिनों में महिला कलाकारों को इस कला को प्रदर्शित करते हुए देखा जा सकता है। पंडवानी लोक गााथागीत प्रदर्शन में एक मुख्य कलाकार होता है और उसके साथ कुछ सहयोगी गायक एवं संगीतकार शामिल होते है। मुख्य कलाकार महाकाव्य के एक गााथा के बाद दूसरे गााथा का क्रमबद्ध रुप से एक बहुत ही शक्तिशाली तरीके से वर्णन करता है। वह यथार्थवादी प्रभाव पैदा करने के लिए दृश्यों में पात्रों का अभिनय भी करता है जो कभी-कभी एक नृत्य नाटक में बदल जाता है। प्रदर्शन के दौरान वह अपने हाथ लिये एकतारा से निकलने वाली संगीत के लय के साथ गाता भी जाता है। पंडवानी में वर्णन की दो शैलियों हैं; वेदमती और कपालिक। वेदमाती शैली में मुख्य कलाकार पूरे प्रदर्शन में बैठकर सरल तरीके से वर्णन करता है। जबकि कपलिक शैली जीवंत शैली है, जिसमें मुख्य कलाकार गााथा के पात्रों एवं दृश्यों का अभिनय के द्वारा सजृन करता है।
पंथी
पंथी नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य में बसे सतनामी समुदाय का प्रमुख नृत्य है। इस नृत्य से सम्बन्धित गीतों में मनुष्य जीवन की महत्ता के साथ आध्यात्मिक संदेश भी होता है, जिस पर निर्गुण भक्ति व दर्शन का गहरा प्रभाव है। कबीर, रैदास तथा दादू आदि संतों का वैराग्य-युक्त आध्यात्मिक संदेश भी इसमें पाया जाता है। गुरु घासीदास के पंथ के लिए माघ माह की पूर्णिमा अति महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इस दिन सतनामी अपने गुरु की जन्म तिथि के अवसर पर ‘जैतखाम’ की स्थापना कर ‘पंथी नृत्य’ में मग्न हो जाते हैं। यह द्रुत गति का नृत्य है, जिसमें नर्तक अपना शारीरिक कौशल और चपलता प्रदर्शित करते हैं। सफ़ेद रंग की धोती, कमरबन्द तथा घुंघरू पहने नर्तक मृदंग एवं झांझ की लय पर आंगिक चेष्टाएँ करते हुए मंत्र-मुग्ध प्रतीत होते हैं। मुख्य नर्तक पहले गीत की कड़ी उठाता है, जिसे अन्य नर्तक दोहराते हुए नाचना शुरू करते हैं। प्रारंभ में गीत, संगीत और नृत्य की गति धीमी होती है। जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता है और मृदंग की लय तेज होती जाती है, वैसे-वैसे पंथी नर्तकों की आंगिक चेष्टाएँ भी तेज होती जाती हैं। गीत के बोल और अंतरा के साथ ही नृत्य की मुद्राएँ बदलती जाती हैं, बीच-बीच में मानव मीनारों की रचना और हैरतअंगेज कारनामें भी दिखाए जाते हैं। इस दौरान भी गीत-संगीत व नृत्य का प्रवाह बना रहता है और पंथी का जादू सिर चढ़कर बोलने लगता है। प्रमुख नर्तक बीच-बीच में ‘अहा, अहा…’ शब्द का उच्चारण करते हुए नर्तकों का उत्साहवर्धन करता है। गुरु घासीदास बाबा का जयकारा भी लगाया जाता है। थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद प्रमुख नर्तक सीटी भी बजाता है, जो नृत्य की मुद्राएँ बदलने का संकेत होता है।
नृत्य का समापन तीव्र गति के साथ चरम पर होता है। इस नृत्य की तेजी, नर्तकों की तेजी से बदलती मुद्राएँ एवं देहगति दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देती है। पंथी नर्तकों की वेशभूषा सादी होती है। सादा बनियान, घुटने तक साधारण धोती, गले में हार, सिर पर सादा फेटा और माथे पर सादा तिलक। अधिक वस्त्र या श्रृंगार इस नर्तकों की सुविधा की दृष्टि से अनुकूल भी नहीं है। वर्तमान समय के साथ इस नृत्य की वेशभूषा में भी कुछ परिवर्तन आया है। अब रंगीन कमीज और जैकेट भी पहन लिये जाते हैं। मांदर एवं झाँझ पंथी के प्रमुख वाद्ययंत्र होते हैं। अब बेंजो, ढोलक, तबला और केसियो का भी प्रयोग होने लगा है।
पंथी छत्तीसगढ़ का एक ऐसा लोक नृत्य है, जिसमें आध्यात्मिकता की गहराई तो है ही, साथ ही भक्त की भावनाओं का ज्वार भी है। इसमें जितनी सादगी है, उतना ही आकर्षण और मनोरंजन भी है। पंथी नृत्य की यही विशेषताएँ इसे अनूठा बनाती हैं। वास्तव में ‘पंथी नृत्य’, धर्म, जाति, रंग-रूप आदि के आधार पर भेदभाव, आडंबरों और मानवता के विरोधी विचारों का संपोषण करने वाली व्यवस्था पर हज़ारों वर्षों से शोषित लोगों और दलितों का करारा, किंतु सुमधुर प्रहार है। यह छत्तीसगढ़ की सतनामी जाति के लोगों का पारंपरिक नृत्य है, , जो सतनाम पंथ के पथिक हैं। इस पंथ की स्थापना छत्तीसगढ़ के महान् संत गुरु घासीदास ने की थी।
राउत नाचा
राउत नाच या राउत-नृत्य, यादव समुदाय का दीपावली पर किया जाने वाला पारंपरिक नृत्य है। इस नृत्य में राउत लोग विशेष वेशभूषा पहनकर, हाथ में सजी हुई लाठी लेकर टोली में गाते और नाचते हुए निकलते हैं। गांव में प्रत्येक गृहस्वामी के घर में नृत्य के प्रदर्शन के पश्चात् उनकी समृद्धि की कामना युक्त पदावली गाकर आशीर्वाद देते हैं। टिमकी, मोहरी, दफड़ा, ढोलक, सिंगबाजा आदि इस नृत्य के मुख्य वाद्य हैं। नृत्य के बीच में दोहे गाये जाते हैं। ये दोहे भक्ति, नीति, हास्य तथा पौराणिक संदर्भों से युक्त होते हैं। राउत-नृत्य में प्रमुख रूप से पुरुष सम्मिलित होते हैं तथा उत्सुकतावश बालक भी इनका अनुसरण करते हैं।
आमतौर पर नृत्य के साथ गए जाने वाले दोहो में आदिवासी जीवन शैली का वर्णन किया जाता है। जनजातीय दर्शन और उनके आदर्श संगीत और गीतों का जो प्रतिबिंबित होता हैं वह दर्शको को मंत्रमुग्ध करके दूसरी दुनिया में ले जाता हैं। इसमें संगीत की विविधता हैं। सांस्कृतिक प्रदर्शनों में प्रमुख संगीत वाद्ययंत्र मांदर, ढोल और ड्रम हैं। दिवाली त्योहार के सात दिनों के लिए बेहद कल्पनाशील और निपुण नाटक रावत नाचा मनोरंजन का एक लोकप्रिय रूप है। यह नृत्य और संगीत के रूप में विविध महाभारत कालीन युद्ध की कहानियों को एक अनोखे ढंग से चित्रित करता है। साथ ही कवि कबीर और तुलसी की छंद छत्तीसगढ़ के प्रागैतिहासिक आदिवासी समुदायों के मध्य में प्राचीन काल के स्मृति से भर देती है।
राउत नाचा भगवान कृष्ण के साथ गोपी के नृत्य के समान है। समूह के कुछ सदस्यों द्वारा गीत गाया जाता है, कुछ वाद्ययंत्र बजाते है और कुछ सदस्य चमकीले और रंगीन कपड़े पहनकर नृत्य करते हैं। नृत्य आमतौर पर समूहों में किया जाता है। नर्तक हाथो में रंगीन सजी हुयी छड़ी और धातु के ढाल के साथ और अपनी कमर और टखनों में घुंघरू बांधते है। वे इस नृत्य में बहादुर योद्धाओं का सम्मान करते हुए प्राचीन लड़ाइयों और बुराई पर अच्छाई की अनन्त विजय के बारे में बताते हैं। नृत्य राजा कंस और भगवान कृष्ण के बीच पौराणिक लड़ाई का प्रतिनिधित्व करता है और जीत का जश्न मनाया। और शाम को कई गांवो में मातर मढ़ई का आयोजन किया जाता है।